श्रद्धात्रय विभाग योग (प्रेम व श्रद्धा)
पिछले अध्याय में हमने जाना कि इस दुनिया में दो प्रकार के पुरूष होते हैं-एक दैवीय और दूसरे आसुरी प्रवृत्ति के। दैवीय प्रवृत्ति के लोगों को मुक्ति मिलती है एवं आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को पुनर्जन्म, और वह भी निम्न श्रेणी में। अब आपके मन में यह प्रश्न आयेगा कि यह बात हमें क्यों बताई जा रही है। मैं आपको इसे उदाहरण के साथ बताता हूँ। जिस तरह हम अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बचत करते हैं या अपने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए धन का संचय करते हैं जिससे बाद में उसका लाभ मिल सके, उसी प्रकार हम इस जन्म में जो कर्म कर रहे हैं उसका फल हमें बाद में मिलेगा। गीता में हमें जन्म के बाद के फल के बारे में बताया गया है। इसलिए श्रीमद् भगवद् गीता में दैवीय सम्पदा को बढाने की बात की गई है क्योंकि मृत्यु के बाद यही सम्पदा हमारे साथ जाती है। अतः अब हम आगे की यात्रा की ओर चलते हैं जहां हम गीता के सत्रहवें अध्याय-श्रद्धात्रय विभाग योग को जानेंगे संजय की नज़र से।
इस पूरे अध्याय में चार बातों को बताया गया है-
- श्रद्धा का शास्त्र विधि से संबंध।
- श्रद्धा का भोजन से संबंध।
- श्रद्धा को यज्ञ, तप और दान से संबंध
- ú तत् सत् का तात्पर्य
इस यात्रा के दौरान हम इन बातों को जानेंगे और अपने जीवन में इसे उतारने की कोशिश करेंगे। गत अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि शास्त्र विधि में निहित कर्म करने चाहिए। जब कृष्ण अर्जुन को यह ज्ञान दे रहे थे तो उससे पहले वेद, पुराण, उपनिषद् लिखे जा चुके थे जो कर्म इनमें बताए गए हैं वही कर्म हमें करने चाहिए। तब अर्जुन ने कृष्ण से पूछा कि जो इंसान शास्त्र विधि को छोडकर श्रद्धा के साथ भगवान की पूजा करता है उसकी स्थिति कैसी होती है? तब कृष्ण ने बताया कि पुरूष जैसी श्रद्धा के साथ पूजा करते हैं उन्हे वैसी ही गति मिलती है। इसमें पूजा के भी तीन प्रकार बताए गए हैं- - देव पूजा
- आसुरी पूजा
- भूत पूजा।
मैं आपको बताना चाहता हूं कि गीता में भगवान कृष्ण ने बार-बार पुरूष शब्द का प्रयोग किया है। पुरूष से उनका तात्पर्य मानव या इंसान से है। आइये हम पूजा के प्रकारों को जानते हैं। कुछ लोग महात्मा गांधी या विवेकानंद को अपना आदर्श मानते हैं वे उनके विचारों को अपने जीवन में उतारते हैं ऐसे लोग सात्विक होते हैं। कुछ लोग ओसाम बिन लादेन या हिटलर को अपना आदर्श मानते हैं, जो लोगों पर अपना शासन स्थापित करना चाहते हैं, ऐसे लोग राजसिक प्रवृत्ति के होते हैं। वहीं कुछ लोग तंत्र-मंत्र में विश्वास रखते हैं। आज हमें अक्सर यह सुनाई देता है कि किसी व्यक्ति ने एक छोटे बालक की बलि चढायी। ऐसे लोग
तामसिक प्रवृत्ति के होते हैं। मेरा यह मानना है कि जिसकी जैसी श्रद्धा वैसा ही तो परिणाम होगा।
हमारे भोजन का हमारे व्यक्तित्व एवं स्वभाव से गहरा संबंध है उसी प्रकार श्रद्धा का भी हमारे भोजन से संबंध है। हमारी श्रद्धा जैसी होगी वैसा ही भोजन हमें पसंद होगा। कोई व्यक्ति जिसे रसदार और चिकना भोजन पंसद है तो वह सात्विक है। जिससे आयु, आरोग्य, बल एवं सात्विक श्रद्धा की वृद्धि होती है। ऐसा व्यक्ति जिसे खट्टा, तीखा, नमकीन और गर्म भोजन प्रिय है तो वह राजसिक है। इसी प्रकार तामसिक पुरूष को बासी और अधपका भोजन प्रिय होता है। मेरा मानना है कि हमें जो पसन्द है वही हम खाएंगे और जो हम खाएंगे वैसा ही हमारा व्यक्तित्व बन जाता है। एक शिक्षक को सात्विक भोजन, सैनिक को राजसिक भोजन करना चाहिए। अपने कर्म का भोजन के साथ संबंध स्थापित करना बहुत जरूरी है।
अब जानते हैं यज्ञ, तप और दान का श्रद्धा से क्या संबंध है। मेरा मानना है कि श्रद्धा एक भाव है, यह एक मन और आत्मा की स्थिति है। हमारा शरीर भावनाओं से बंधा है। इस अध्याय में यज्ञ, तप ओर दान के भी तीन प्रकार बताए गए हैं। कर्त्तव्य भाव से किया गया तप, दान और यज्ञ सात्विक कहलाता है। कुछ पाने की इच्छा के साथ किया गया यज्ञ और दान राजसिक और किसी का तिरस्कार या नुकसान पहुँचाने के लिए किया गया यज्ञ और दान तामसिक कहलाता है। इस अध्याय में तप के भी तीन प्रकार बताए गए हैं। पहला है शरीर का तप जो माता-पिता की सेवा करने और गुरू का आदर करने से होता है। दूसरा तप है वाणी का तप जो प्रिय और मधुर बोलने से किया जाता है और तीसरा तप है मन का तप जो प्रसन्न रहने से होता है जिससे हमार मन शांत रहता है। आपके भाव यह तय करते हैं कि आप जो कर्म कर रहे है और यही कर्म आपकी गति निर्धारित करते हैं।
इस अध्याय की चौथी और महत्वपूर्ण बात है ú तत् सत्। गीता में 5 जगहों पर ú की बात की गई है। इस ब्रह्माण्ड में एक आवाज गूंज रही है और वो है ú। ú का उच्चारण करने से हम ब्रह्म मे लीन हो जाते हैं, जिससे सब कर्म परमात्मा को निमित्त हो जाते हैं। तत् समर्पण है, किसी भी कार्य में श्रेष्ठता तभी आती है जब उसमें समर्पण का भाव हो। जो भी कार्य किया जाए वो भगवान को समर्पित किया जाए। वहीं सत् से तात्पर्य है-सत्य। सत्य ही जीवन है, ताकत है, ऊर्जा है। हमें सत्य की खोज करनी है। यही तो भगवान कृष्ण हमें समझा रहे हैं कि हमें जीवन के बाद के बारे में सोचना चाहिए। हम जो भी कार्य इस जीवन में कर रहे हैं उसका फल हमें अगले जन्म में मिलेगा। अगर हमने सत् कर्म किए तो मोक्ष मिलेगा और अगर बुरे कर्म किए तो हमें अगले जन्म में पुनर्जन्म के जाल में फंसना होगा।
अब अगले अध्याय में हम मोक्ष की यात्रा पर चलेंगे। जहां मेाह का क्षय हो जाए वही तो मोक्ष है। इस यात्रा पर मेरे साथ बने रहियेगा क्योंकि अगला अध्याय और भी अधिक अद्भुत होगा। मैं आपको इस यात्रा में बने रहने के लिए धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। आप सभी का दिल से आभार।