मोक्ष सन्यास योग (आनन्द व मोक्ष)


पिछले अध्याय में हमने श्रद्धा के भाव को जाना। श्रद्धा के प्रकारों और श्रद्धा का शास्त्र, भोजन, यज्ञ, तप और दान संबंध को समझा। श्रद्धा का गहरा अर्थ है। इसके बाद किसी पर अविश्वास नहीं होता है। इस अवस्था के बाद मनुष्य मोक्ष को समझ जाता है। गीता के विभिन्न अध्यायों में मैं कौन हूँ? इसे जाना। मेरा लक्ष्य क्या है? कार्य की दिशा क्या है? यह भी जाना। जब हमारा लक्ष्य निर्धारित हो जाता है तो हम आगे बढते हैं और हमारी ऊर्जा भी उसी दिशा में लग जाती है। इसी प्रकार हमारे जीवन का भी लक्ष्य निर्धारित होना जरूरी है। गीता के इस अध्याय में हम जीवन के परम लक्ष्य या उद्देश्य को जानेंगे। यदि हमें गीता के मूल भाव को जानना है तो कुछ बातों को समझना पडेगा-गुण क्या है और इनका निर्धारण कैसे करें। गीता में गुण तीन प्रकार के बताए गए हैं-

  1. सात्विक गुण– सात्विकता अर्थात् परमार्थ। जो व्यक्ति दूसरों का हित देखते हैं और फल का त्याग करते हैं
  2. राजसिक गुण– ऐसे व्यक्ति स्वयं का स्वार्थ देखते हैं और फल की भी इच्छा रखते हैं।
  3. तामसिक गुण– इसका भाव है मूढता। ऐसे व्यक्ति दूसरों का नुकसान और स्वयं का फायदा चाहने वाले होते हैं।
    हम सभी को अपना स्वभाव जानना जरूरी है। मुझे लगता है यह जरूरी है कि हम सात्विक गुण को धारण करें ताकि मोक्ष की प्राप्ति की जा सके। आज एक खास दिन है कि हम 18 वें अध्याय पर चर्चा करेंगे। हम सभी की जीवन यात्रा का अंतिम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त करना है कि ताकि इस जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो सकें, तो आइए चलते हैं इस यात्रा पर जहां हम जानेंगे मोक्ष की प्राप्ति का रास्ता। अज्ञानतावश हम कर्मफल के मोह में फंसते हैं जो हमें मोक्ष से दूर ले जाता है। हम सब सोचते हैं कि आखिर मोक्ष है क्या? तो इसका जवाब मैं आपको बताता हूँ कि मोह का क्षय ही तो मोक्ष है। जहां मोह की अनासक्ति हो, कर्म को धर्म समझकर किया जाए वहीं तो मोक्ष प्राप्त होता है। अब एक और प्रश्न उठता है कि यह कब मिलता है। ऐसा सोचना हमारी धारणा मंे है, लेकिन वास्तविकता में तो मोक्ष जीवन के दौरान ही मिलता है परंतु तब, जब किसी काम को उसकी फल की प्राप्ति के बगैर किया जाये, मोह का त्याग कर दिया जाये। इस अध्याय के पहले अंक में हम 5 बातों को विस्तार से जानेंगे, उन्हे समझेंगे और उनको अपने जीवन में आत्मसात् करेंगे। त्याग के प्रकार, कर्म की सिद्धि, ज्ञान क्या है और उसके प्रकार, कर्म और कर्ता का आशय तथा कर्ता और कर्म कब राजसिक एवं तामसिक हो जाते हैं।

    त्याग के प्रकारः

    श्रीमद् भगवद् गीता की रचना भगवान श्रीकृष्ण द्वारा 5150 वर्ष पूर्व की गई। उस समय सन्यास का जो अर्थ बताया गया वह समय के साथ बदल गया। इसकी व्याख्या कर्मों को छोडना समझा गया। जबकि जिसका जो कर्म है वो तो करना ही पडेगा। मैं आपको समझाता हूँ वर्ण व्यवस्था के तहत् समाज को चार भागों में बांटा गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। ब्रह्मण का कर्म है कि वो समाज को धर्म का सही अर्थ समझाए लेकिन यदि वो अपना कर्म त्याग दे तो शास्त्र का ज्ञान कौन देगा। हम इंसान है इसलिए हमें कर्म तो करने ही पडेंगे। सन्यास में यदि तप, दान और यज्ञ को ही छोड दिया गया तो कर्म कैसे होंगे इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं कि सन्यास से त्याग श्रेष्ठ है। वे कहते हैं कि दान, यज्ञ, तप, नियत कर्म करते समय अनासक्त भाव लाना ही त्याग है।
    जब हम गीता को पढते हैं तो दो शब्द बार-बार हम पढते हैं- निष्काम और अनासक्त। आइये समझें इन दो शब्दों के भाव को। निष्काम-इसका संबंध कर्म और मन से है। जब हमारा मन अच्छा होता है तो हम कामनायें छोड देते हैं। अनासक्त-यह हृदय की स्थिति है, हृदय व मन को पवित्र करें जिसमें फल की इच्छा नहीं रहती है। जब हम ऐसा करते हैं तब कर्म श्रेष्ठ बन जाता है। इसमें त्याग के प्रकारों को भी समझाया गया है।
  4. सात्विक त्याग– यह वह त्याग है जो निष्काम किए जाते हैं अकुशल कर्मों से द्वेष नहीं और कर्मों में आसक्ति नहीं रखता वह श्रेष्ठता की ओर जाता है और अनासक्त भाव निहित होते हैं, वह सात्विक त्याग कहलाता है।
  5. राजसिक त्याग- अपने नियत कर्मों को मोह के कारण त्याग करना है ऐसे त्याग भय के कारण किए जाते हैं। यदि कोई क्षत्रिय यह सोचकर युद्ध न करे कि इससे बहुत से बेगुनाह लोग मारे जायेंगे जबकि एक क्षत्रिय का कर्म है कि अपने धर्म की रक्षा करने के लिए यदि उसे युद्ध करना पडे तो उसे करना होगा। इस डर से कर्म छोड दिया जाये तो इस तरह का त्याग राजसिक त्याग की श्रेणी मंे आता है।
  6. तामसिक त्याग- यह त्याग मोह के कारण किया जाता है, अर्थात् कर्मों को मोह के कारण छोड देना।
    कर्मसिद्धि की इच्छा- अक्सर हमारे साथ ऐसा होता है कि हम कोई काम करना चाहते हैं लेकिन वो पूरा नहीं होता। कोई काम तब पूरा होता है जब उसमें यह पांच बातें सिद्ध होती है। सिद्धि के पांच स्तम्भ- आत्मा, शरीर, इंद्रियां, ऐन्द्रिक क्रियायें और दैवीय कर्म। अब जरा जानें कि इन पांचो का क्या संबंध है। स्वयं का निर्णय लेना आत्मा के अन्तर्गत आता है। उस निर्णय के लिए की गई चेष्टा शरीर के अन्तर्गत होती है, उसके बाद हम अपनी इन्द्रियों का प्रयोग लेकिन दैवीय कर्म तो हमारे हाथ में नहीं है क्योंकि यह तो भाग्य है जो हमारी दिशा निर्धारित करती है। मैं आपको इसे सरल भाषा में समझाता हूँ। यदि किसी विद्यार्थी को फोटाग्राफर बनना है और उसके लिए वह आवेदन करता है, साक्षात्कार देता है, अपना ध्यान लगाता है, अपनी इच्छाओं का त्याग करता है, उस बीच वह नेता बन जाता है तो यह उसका भाग्य निर्धारित था। जब तक ये पांच बातें पूरी नहीं होती तब तक कर्म की सिद्धि नहीं होगी।
    दूसरा अंक –
    पिछले अध्याय में हमने पांच बिन्दुओं पर चर्चा की थी इस अध्याय में हम छह बिन्दुओं पर चर्चा करेंगे-जो है बुद्धि और उसके प्रकार, धीरता और उसके प्रकार, सुख और उसके प्रकार, वर्ण विभाग, कृष्ण को कौन प्रिय है और संजय, धृतराष्ट्र को अंतिम मत के रूप मैं क्या बताते हैं।

अक्सर हमारे साथ ऐसा होता है कि हम चाहते कुछ और हैं और होता कुछ और है। इनमें गुण कुछ हैं और हम कर्म कुछ और ही कर रहे होते हैं, इस कारण हम असफल हो जाते हैं क्योंकि हमारा पूरा ध्यान अपने लक्ष्य पर नहीं होता है। कृष्ण कहते हैं कि पुरूष को उसके गुणों को जानना जरूरी है।
बुद्धि- श्रीकृष्ण कहते हैं धनंजय! अब तू बुद्धि के भेद को समझ। बुद्धि भी तीन प्रकार की होती है। सात्विक बुद्धि– जो पुरूष कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य, बंधन और अबंधन को समझते हैं वे सात्विक बुद्धि के होते हैं। राजसिक बुद्धि- वे व्यक्ति जो कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य, धर्म और अधर्म को नहीं समझते वे राजसिक बुद्धि के बुद्धि के होते हैं। तामसिक बुद्धि- जो व्यक्ति अज्ञान को ज्ञान, धर्म को अधर्म समझते हैं वो तामसिक बुद्धि के होते हैं।
धीरता- श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन प्रबल, शक्तिशाली और चंचल है। मन में ही इच्छा शक्ति होती है। यह भी तीन प्रकार की होती है। सात्विक धीरत- ऐसे पुरूषों का मन, प्राण और इंद्रियां भगवान के अधीन होती है। राजसिक धीरता- ऐसे पुरूष धर्म और अर्थ को समझते हैं लेकिन वे कामी हो जाते हैं। उनकी कामनाएं समाप्त नहीं होती है। तामसिक धीरता- ऐसे व्यक्तियों को दुःख, भय, निद्रा, अभिमान सताते हैं।
सुख- श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे गुण होंगे वैसे ही कर्म व्यक्ति करेगा और उसे वैसे ही सुख की प्राप्ति होगी। इसके भी तीन प्रकार बताए गए हैं। सात्विक सुख जो व्यक्ति भजन ध्यान और सेवा में ध्यान लगाते हैं, उन्हे सात्विक सुख की प्राप्ति होती है। राजसिक सुख- ऐसे व्यक्ति विषय और इंद्रियों के संयोग से सुख पाते हैं। तामसिक सुख- नशा, निद्रा और आलस्य में लगे हुए व्यक्ति तामसिक सुख भोगते हैं।
वर्ण- गुणों के आधार पर वर्ण व्यवसाय को भी बताया गया है। ब्राह्मण- ऐसे व्यक्ति मन, चित्त और अहंकार को नियंत्रित करने वाले, वेद पढने वाले तथा अंतः और बाह्य दोनों शुद्ध रखने वाले होते हैं। क्षत्रिय- हर क्षत्रिय शूरवीर, पराक्रम और चतुर होगा। वह युद्ध से नहीं भागेगा उसका डटकर मुकाबला करेगा। वैश्य- इस वर्ण के व्यक्ति गुणा-भाग, लाभ-हानि, गोपालन, उद्योग में लगे रहते हैं। शुद्र- इस वर्ण के व्यक्ति लोग भौतिक रूप से कुछ नहीं करते बल्कि दूसरों के निर्देशों का पालन करते हैं। कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन जिस ज्ञान की मैंने अभी बात की है जो इसकी बात करेगा इसका मनन करेगा वो मोक्ष पाएगा। भगवान अर्जुन कहते हैं कि अर्जुन मैंने जो तुम्हे गोपनीय ज्ञान दिया है इसे किसी से मत कहना। ऐसे व्यक्ति से तो बिल्कुल भी मत कहना जो भक्त न हो जो इसे सुनना ना चाहता हो। एक और बात जो व्यक्ति मेरी इन बातों को सुनेगा वो मुझे मिल जाएगा और पापों से मुक्त हो जाएगा। अंत में श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं और अर्जुन की तरफ देखकर उससे पूछते हैं कि क्या अब तुम्हारा संशय दूर हुआ और क्या तुम्हारा मोह समाप्त हो गया तब अर्जुन झुककर कृष्ण को प्रणाम करते हुए कहते हैं मेरा न केवल मोह समाप्त हुआ बल्कि मेरी बुद्धि भी लौट आई है। अब वो क्षण आता है जब संजय धृतराष्ट्र अपना मत देते हैं। धृतराष्ट्र तो अभी भी मोह में बंधे हुए हैं और संजय तो बालक के समान अबोध हैं, निर्मल है और तब संजय अपना मत देते हुए कहते हैं जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, गांडीधारी अर्जुन है। वहीं श्री है वही विजय है वही विभूति है अचल नीति है। यहां मैं आपको बताना चाहता हूं कि श्री से आशय शुभ से है, विजय से आशय कौन जीतेगा, विभूति से आशय श्रेष्ठता से है, अचल नीति से आशय जहां नीति स्थिर होगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes:

<a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>