इन दिनों हम रामायण धारावाहिक देख रहे हैं। अगर आप किसी कारण से यह नहीं देख पाए हो तो बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में आज के इस धारावाहिक से जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण दृश्य-सूत्र को संक्षिप्त में इस प्रकार समझा जा सकता है:

दृश्य संख्या 1: ईश्वर सर्वोपरि है।

इस दृश्य में रावण के ससुर मायासुर रावण को समझाते हैं। मायासुर कहते हैं कि शिव, ब्रह्मा व समस्त देवतागण राम के पक्ष में हैं। यह बात सुनकर रावण स्वयं को त्रिलोक विजेता बतलाता है। इस पर मायासुर कहते हैं रावण तुम त्रिलोक विजेता हो पर राम त्रिलोक रचयिता है। रावण इस बात का उपहास करते हैं। इस प्रकार अपने ससुर मायासुर के काफी समझाने के बाद भी संधि की शर्त के अनुसार आखिरी रात रावण उनकी सलाह को ठुकरा देता है। इससे हमें यह सीखने को मिलता है कि इस संसार में बहुत सी सफलताएं मिल जाने के पश्चात भी इस संसार के रचयिता को ही सर्वोपरि समझना चाहिए। जब ईश्वर को सर्वोपरि समझते हैं तो हम अहंकार के भाव से बच जाते हैं तथा कृतज्ञता के भाव में रहने लगते हैं।

दृश्य संख्या 2: अहंकार व स्वाभिमान में बहुत थोड़ा भेद है।

इस दृश्य में मंदोदरी रावण को संधि के आखिरी रात समझाती है। मंदोदरी कहती है सती नारी का मन बहुत ही कोमल होता है, परंतु सत्य धर्म के पालन में वह हिमालय के समान अविचल हो जाती है। नारी का हृदय बड़े से बड़े प्रलोभन में भी विचलित नहीं होता और इस प्रकार मंदोदरी रावण से विनती करती है कि वह अनावश्यक युद्ध में लंका को ना झोंके। वह यह भी कहती है कि नाथ अगर तुम चाहो तो दानवों की मृत्यु को आज की रात सही निर्णय लेकर जीवन की ओर मोड़ सकते हो। रावण मंदोदरी का उपहास करता है और वह अपनी क्षमताओं का बखान करता है। रावण का कहना है कि नवग्रह के सभी देव उनकी सेवा में खड़े रहते हैं। वह जिन्हें राम कह रही है वह तुच्छ वनवासी है। अंत में सभी प्रयास करने के बाद मंदोदरी रावण को अहंकार रूपी पट्टी जो आंखों से हटाने को कहती है। रावण कहते हैं कि यह मेरा अहंकार नहीं बल्कि यह मेरा स्वाभिमान है। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि स्वाभिमान धीरे-धीरे कब अहंकार बन जाता है, इंसान को पता ही नहीं चलता है। जब किसी स्वाभिमान में कृतज्ञता ना हो तो यह हमें यह समझ लेना चाहिए कि अब यह अहंकार बन गया है।

दृश्य संख्या 3: अंत में विजय धर्म की ही होती है।

आज संधि प्रस्ताव की आखिरी रात है रावण की मां कैकसी रावण को समझाने के लिए आती है। कैकसी कहती है तुम्हारे दोनों भाई खर, दूषण और बहुत से राक्षस युद्ध में मारे जा चुके हैं। तुमने नाना की बातों को ना मानकर भी अच्छा नहीं किया। कैकसी कहती हैं कि रावण बेटे मैंने तुम्हें जन्म दिया है और मैं तुम्हारा शुभ चाहती हूं। रावण कहते हैं मैं नादान नहीं हूं, आपने मुझे जन्म जरूर दिया परंतु मैनें अपना भूत और भविष्य स्वयं तय किया है। कैकसी रावण को समझाती है कि दानव अधर्म के साथ हैं व देवता धर्म के साथ हैं और अंत में विजय धर्म के साथ रहने वालों की ही होती है। इतना समझाने के बाद कैकसी हटधर्मी रावण को युद्ध ना करने की सलाह देती है। इससे हमें यह सीख मिलती है कि अंत में देर से ही भले पर जीत सत्य की ही होती है।

एपिसोड-५ (मकराक्ष वध व राम-रावण युद्ध)

इन दिनों हम रामायण धारावाहिक देख रहे हैं। अगर आप किसी कारण से यह नहीं देख पाए हो तो बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में आज के इस धारावाहिक से जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण दृश्य-सूत्र को संक्षिप्त में इस प्रकार समझा जा सकता है:

दृश्य संख्या 1: दुश्मन की वीरता का भी सम्मान करें।

सेनापति दुर्मुख की मृत्यु के पश्चात रावण के भाई खर का पुत्र मकराक्ष आता है। अपने पिता खर की मृत्यु का बदला लेने के लिए युद्ध में जाने के प्रस्ताव रखता है। रावण इसके लिए अपनी सहमति दे देते हैं। युद्ध भूमि में मकराक्ष पहुंचकर राम को युद्ध के लिए ललकारते हैं। राम युद्ध भूमि में स्वयं आते हैं तथा मकराक्ष का परिचय तथा अपने पिता की मृत्यु के लिए माता के संकल्प को पूरा करने के लिए की गई प्रतिज्ञा को बड़े सम्मान की नजर से देखते हैं। लक्ष्मण मकराक्ष का उपहास करते हैं तथा यह कहते हैं कि यह तो कुछ ऐसे हुआ जैसे कोई चूहा शेर की गुफा के बाहर खड़ा होकर शेर को युद्ध के लिए ललकारे। इस पर राम कहते हैं कि वीरों का उपहास करना वीरों का काम नहीं होता। इससे हमें यह सीख मिलती है कि दुश्मन की हर अच्छाई का भी सम्मान करना चाहिए। यही एक सच्चे वीर का गुण होता है। अच्छाई का सम्मान करने से स्वयं में भी अच्छाई बढऩे लगती है।

दृश्य संख्या 2: भक्त व ज्ञानी में भेद है।

इस दृश्य में अपने भाई के बेटे मकराक्ष की युद्ध में मृत्यु के पश्चात रावण विचलित हो जाता है। रावण स्वयं युद्ध भूमि में आता है। युद्ध भूमि में आने के पश्चात रावण राम से कहता है कि तुम मूर्ख वानरों को अपनी वाक पटुता से बरगला सकते हो, क्योंकि वे अज्ञानी हैं इस पर राम एक बहुत सुंदर जवाब देते हैं। राम कहते हैं कि भक्त व ज्ञानी में यही अंतर है एक ओर भक्त जहां सच्चा और सरल होता है भले ही वह अज्ञानी ही क्यों ना हो दूसरी ओर ज्ञानी अच्छा वह बुरा हो सकता है। ज्ञानी दुराचारी भी हो सकता है। इस समय राम रावण से यह भी कहते हैं की युद्ध लडऩे के लिए सिर्फ पाशविक शक्तियों से ही काम नहीं चलता बल्कि धार्मिक व आत्मिक शिक्षा की भी जरूरत होती है। इससे हमें यह समझ मिलती है कि ज्ञानी से भक्त बड़ा है क्योंकि भक्त सरल होता है और उसे समझाना आसान होता है। जबकि ज्ञानी दुराचारी भी हो सकता है। गीता में भी भगवान कृष्ण भक्ति मार्ग को सर्वश्रेष्ठ व सरल मार्ग बतलाते हैं जहां ज्ञानी बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं, वही भक्त अपने कोमल हृदय व सरल स्वभाव से ही ईश्वर को पा लेते हैं।

दृश्य संख्या 3 : पहली जीत और पहली हार दोनों ही अंतिम नहीं हुआ करती।

इस दृश्य में रावण हताश व निहत्थे होकर वापस महल में लौटते हैं। निहत्थे व हताश रावण के सामने उनके नाना आते हैं, रावण के नाना रावण से कहते हैं कि मैं अब तुम्हें युद्ध ना करने की सलाह नहीं दूंगा। अब मैं तुम्हें यह कहूंगा कि तुम्हें पूरी क्षमता के साथ युद्ध करना चाहिए। वह रावण को प्रेरित करते हैं और रावण से कहते हैं कि पहली हार अंतिम हार नहीं हुआ करती है। हार और जीत के बीच में कई फासले होते हैं। इस दृश्य से हमें यह सीखने को मिलता है कि एक बार निर्णय लिए जाने के पश्चात उस पर स्थिर रहना चाहिए तथा निर्णय लेने के पश्चात अगर प्रारंभिक अवस्था में हार भी मिले तो उसे अंतिम हार नहीं समझना चाहिए। लगातार प्रयास करते रहना चाहिए। क्योंकि बहुत बार प्रारंभिक हार होने के बावजूद भी अंत में विजय होती है, दूसरी ओर कई बार प्रारंभ में विजय होने के बाद भी अंत में हार हो जाती है।

एपिसोड-६ (कुंभकरण रावण एवं कुंभकर्ण विभीषण संवाद)

इन दिनों हम रामायण धारावाहिक देख रहे हैं। अगर आप किसी कारण से यह नहीं देख पाए हो तो बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में आज के इस धारावाहिक से जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण दृश्य-सूत्र को संक्षिप्त में इस प्रकार समझा जा सकता है:

दृश्य संख्या 1: कर्म व अर्थ, धर्म के अधीन होने चाहिए।

इस दृश्य में कुंभकरण को नींद से जगाया जाता है और कुंभकरण नींद से जागने के बाद रावण के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। कुंभकरण रावण से कहते हैं कि आप नारायण के रूप में श्रीराम को नहीं समझ पाए, रावण क्रोधित होते हैं। वे कहते हैं शत्रु को श्री से सम्बोधित मत करो। कुंभकरण इसका जवाब देते हैं कि आंख बंद करने से सूर्य का प्रकाश कम नहीं हो जाता उन्हें श्रीराम ही कहना होगा। इसके आगे कुंभकरण कहते हैं, अर्थ व कर्म जब धर्म के विपरीत हो वहां कर्म और अर्थ को त्याग देना चाहिए। वे आगे कहते हैं सुबह का समय धर्म का होता है, दोपहर का समय अर्थ का होता है और रात्रि का समय काम का होता है। इस प्रकार वे भली-भांति रावण को यह समझाते हैं कि धर्म सर्वोपरि है। अर्थ एवं कामनाएं धर्म सम्मत होनी चाहिए। इस दृश्य से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि सुबह का कार्य अच्छे विचारों का होना चाहिए, धार्मिक कार्यों का होना चाहिए दोपहर में अर्थोपार्जन पर ध्यान दिया जाना चाहिए तथा उसके पश्चात कामनाओं की पूर्ति पर ध्यान दिया जाना चाहिए। शास्त्रों में चार पुरुषार्थ बताए गए हैं धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थ में सबसे महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है धर्म। धर्म का अर्थ है सही व गलत का विवेक। जब अर्थ उपार्जन व कामनाएं धर्म के अधीन होती हैं तब वह श्रेष्ठ होती है और इसी के द्वारा चौथे व अंतिम पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

दृश्य संख्या 2: राजा को चापलूस मंत्रियों से दूर रहना चाहिए।

इस दृश्य में रावण को कुंभकरण पर क्रोध करते हुए दिखाया जाता है रावण कुंभकरण से कहते हैं यह समय शास्त्र संबंधित बातें करने का नहीं है। इसके आगे रावण क्रोधित होकर कुंभकरण से कहते हैं अगर तुम युद्ध में भाग नहीं लेना चाहो तो उन्हें वापस जाकर सो जाओ मैं स्वयं युद्ध कर लूंगा। इसके जवाब में कुंभकर्ण रावण से कहते हैं कि छोटे भाई के रहते हुए कभी बड़े भाई युद्ध में नहीं जाते। वे कहते हैं जो बातें मैंने कही हैं वह छोटे भाई होने के कारण मेरा अधिकार भी था और यह मेरा कर्तव्य भी था। इसके आगे वह यह भी कहते हैं कि छोटा भाई मित्र भी है और सेवक भी है। अपने बड़े भाई के लिए तो मैं मरने को भी तैयार हूं। कुंभकरण को आज रावण की यह स्थिति देखकर बड़ा दुख भी हो रहा है और एक छोटे भाई होने के नाते ऐसी परिस्थिति में जो कर्तव्य है उसको पालन करने की मर्यादा भी महसूस हो रही है। अंत में कुंभकरण कहते हैं कि जो मंत्री राजा की हां में हां मिलाते हैं वे मंत्री कभी राजा का भला नहीं कर सकते। इस दृश्य से हमें यह सीख मिलती है कि राजा को अपने दरबार में किए जाने वाले सभी कार्यों में सलाहकारों की मदद लेनी चाहिए तथा ऐसे मंत्रियों से हमेशा दूर रहना चाहिए जो राजा की हां में हां मिलाते हैं और राजा को सही निर्णय लेने नहीं देते।

दृश्य संख्या 3: क्या धर्म की परिभाषा देश व काल के अनुसार बदलती है?

इस दृश्य में कुंभकरण युद्ध भूमि पर आते हैं। कुंभकरण का विशाल शरीर को देखकर राम की सेना में हाहाकार मच जाता है। राम सभी से सलाह करते हैं तथा यह निश्चय किया जाता है कि विभीषण कुंभकरण के पास जाकर उन्हें समझाएंगे। युद्ध भूमि में पहुंचकर विभीषण कुंभकरण को प्रणाम करते हैं। कुंभकरण अपने भाई विभीषण से मिलकर प्रसन्न होते हैं पर थोड़ी देर बाद वह विभीषण से रुष्ट होते हुए कहते हैं कि तुमने अपने बड़े भाई का साथ ना देकर राम की शरण में गए। चाहे जैसी भी स्थिति रही हो तुम्हें रावण का ही साथ देना चाहिए था। धर्म की कोई निश्चित परिभाषा नहीं होती। धर्म की व्याख्या देश काल और परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। इसके उत्तर में विभीषण कहते हैं, सत्य सदा एक ही होता है सत्य ही धर्म होता है, सत्य ही शाश्वत होता है। इस समय कुंभकरण कहते हैं ऐसा समय आता है जब आदमी धर्म संकट में फंस जाता है और उस समय यह निश्चित करना बहुत ही कठिन हो जाता है कि प्राणी का क्या धर्म है और क्या कर्तव्य है। ऐसे ही अवसर पर प्राणी अपने संस्कारों के अनुसार ही अपने धर्म का निश्चय करता है। इस संवाद से हमें यह सीखने को मिलता है की धर्म की परिभाषा बहुत ही गूढ़ है तथा वह कभी भी बदलती नहीं है अधर्म प्रारंभ से अंत तक अधर्म ही रहता है और धर्म प्रारंभ से अंत तक धर्म ही रहता है। रिश्तों से अधिक महत्व धर्म को दिया जाना चाहिए क्योंकि अंत में विजय धर्म की ही होती है। शास्त्रों में बताए गए चारों पुरुषार्थ में धर्म का प्रतीक शेर को समझा गया है, उसे किसी की परिचय की आवश्यकता नहीं होती धर्म के अधीन ही अर्थ व काम शोभायमान होते हैं।

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