एपिसोड-१1 इंद्रजीत (मेघनाथ) का वध
इन दिनों हम रामायण धारावाहिक देख रहे हैं। अगर आप किसी कारण से यह नहीं
देख पाए हो तो बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में आज के इस धारावाहिक से जीवन से
संबंधित महत्वपूर्ण दृश्य-सूत्र को संक्षिप्त में इस प्रकार समझा जा सकता है:
दृश्य संख्या 1: पुत्र का धर्म पिता की आज्ञा का पालन करना है।
इस दृश्य में इन्द्रजीत रावण से कहते हैं कि राम-लक्ष्मण नर नहीं, अवतार हैं। वे
देवताओं के भी देवता हैं। जब रावण यह सब सुनते हैं तब उन्हें क्रोध आ जाता है तब
इन्द्रजीत कहते हैं कि पिताश्री! आपके अपमान नहीं कल्याण के लिए आया हूं। पुत्र का
एक ही धर्म होता है पिता के चरणों की सेवा करना। जो अपने पिता को अकेले छोडक़र
चला जाता है उन्हें देवता क्या भगवान भी स्थान नहीं देते। इससे हमें यह प्रेरणा
मिलती है कि मुसीबत के समय पुत्र को पिता का साथ देना चाहिए। इन्द्रजीत राम व
लक्ष्मण को युद्ध के दौरान समझ गया था कि वे दोनों सामान्य नर नहीं है। यदि अब
भी वे युद्ध करेंगे तो उसकी मृत्यु निश्चित है। बावजूद इसके वह अपने पिता के कहने
पर फिर से युद्ध भूमि में जाता है। युद्ध भूमि में वीरगति पाकर इतिहास में अमर हो
जाता है।
दृश्य संख्या २ : अहंकार विनाश का मूल है।
इस दृश्य में रावण को उसका अहंकार मानने नहीं दे रहा कि उसके पुत्र इन्द्रजीत की
मृत्यु हो गई है। रावण कहते हैं कि मृत्यु तो मेरी दासी है, वो इन्द्रजीत को कैसे मार
सकती है। तब रावण के नाना जी कहते हैं कि इन्द्रजीत को मृत्यु ने नहीं मारा, आपके
अहंकार ने मारा है। आपने बल व पराक्रम से काल को तो बांध दिया परंतु काम व
अहंकार को नहीं बांध सके। आप काम व अहंकार के कारण पग-पग पर हार रहे हैं।
इससे हमें यह सीख मिलती है कि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु अहंकार है। काम, क्रोध,
लोभ व मोह की तो दिशा बदलकर सदुप्रयोग किया जा सकता है परंतु अहंकार का तो
कोई भी उपयोग नहीं है। इस प्रकार अहंकार ही अन्यु अवगुणों का मूल है व मनुष्य के
विनाश का कारण है।
दृश्य संख्या 3: प्रजा के हित के लिए अहंकार को त्याग देना चाहिए।
इस दृश्य में रावण के नाना माल्यवंत जी रावण से कहते हैं कि अब भी तुम्हारे पास
एक मौका है, लंका के सर्वनाश को रोकने का। सीता को राम के पास छोड़ आओ। तब
रावण कहता है कि अब छोड़ के आऊंगा तो मेरे मृत पुत्र पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूंगा?
प्रजा तो मुझे कायर समझेगी। तब माल्यवंत कहते हैं कि कभी-कभी अपनी प्रजा के
लिए अपना अहंकार त्याग देना अच्छी बात होती है। वरना इसका परिणाम सिर्फ
तुम्हारा नहीं पूरे राष्ट्र लंका का सर्वनाश हो सकता है। इससे हमें यह सीख मिलती है
कि एक राजा का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व प्रजा के प्रति होता है। अगर अपने अहंकार
को छोडऩे से प्रजा की जान-माल की हानि बच जाती है तो ऐसी दशा में अहंकार का
त्याग करना ही उचित होता है।
क्रमश:
एपिसोड-१२ (राम-रावण युद्ध)
इन दिनों हम रामायण धारावाहिक देख रहे हैं। अगर आप किसी कारण से यह नहीं
देख पाए हो तो बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में आज के इस धारावाहिक से जीवन से
संबंधित महत्वपूर्ण दृश्य-सूत्र को संक्षिप्त में इस प्रकार समझा जा सकता है:
दृश्य संख्या 1: मित्रता जाति के आधार पर नहीं होती।
इस दृश्य में राम व रावण युद्ध भूमि में है। रावण अपनी प्रशंसा खुद ही कर रहा है।
इस पर राम कहते हैं दुनिया में 3 प्रकार के प्राणी पाये जाते हैं। पहले वो जो सिर्फ कहते
हैं, दूसरे जो कहते हैं और करते हैं एवं तीसरे जो सिर्फ करते हैं। राम कहते हैं हे रावण!
तुम सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें अधिक करते हो। इसके बाद जब रावण ने विभीषण पर दिव्य
शक्ति छोड़ी तब राम ने उसे अपने ऊपर ले लिया। इस पर भावुक होकर विभीषण जी
ने श्रीराम से कहा- मैं तो तुच्छ प्राणी हूं, राक्षस जाति का हूं। तब राम ने कहा मित्रता
जाति के आधार पर नहीं की जाती। इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें बड़-बोले
स्वभाव से बचना चाहिए तथा एक सच्चे मित्र को मुसीबत में अपने मित्र का बेहिचक
साथ देना चाहिए। मित्र धर्म का जाति कोई आधार नहीं होती है।
दृश्य संख्या २ : जो होता है अच्छे के लिए होता है।
जब लक्ष्मण श्रीराम से यह कहते हैं कि सब कुछ मेरी वजह से हो रहा है। अगर उस
दिन मैं सीता माता को अकेला छोडक़र नहीं आता तो ऐसा नहीं होता। इस पर श्रीराम
कहते हैं जो होता है अच्छे के लिए होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो हम ऋषि-मुनियों
को राक्षसों से मुक्त नहीं करा पाते तथा अधर्म का नाश नहीं हो पाता। इससे हमें यह
सीख मिलती है कि कभी-कभी जीवन में मुसीबतें आती हैं। ऐसी दशा में हम दु:खी
होकर ईश्वर को याद करने लगते हैं। समय व्यतीत होने के बाद हमें यह पता चलता है
कि उसी मुसीबत के कारण हमारे जीवन में उन्नति होती है। इसलिए हमेशा यह बात
हमारे ज़हन में रहनी चाहिए कि जो होता है अच्छे के लिए होता है।
दृश्य संख्या 3: अगर कर्म-धर्म के अनुसार काम करें तो ईश्वरीय शक्ति भी आपकी
मदद करती है।
इस दृश्य में इंद्र देवता बाकी सब देवताओं से राम व रावण के युद्ध के बारे में बात कर
रहे हैं। इंद्र जी कहते हैं बराबरी करने के लिए श्रीराम को भी रथ देना पड़ेगा। तब
ब्रह्माजी इंद्र को अपना रथ श्रीराम को देने की आज्ञा देते हैं। इससे साफ दिखता है कि
श्रीराम धर्म के साथ थे तो भगवान भी उनकी सहायता कर रहे थे। इससे हमें यह सीख
मिलती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करना चाहिए। ऐसा करने से
प्रकृति व ईश्वर उस कार्य को पूर्ण करने में मदद करते हैं।
दृश्य संख्या ४: अत्याचार तो अत्याचार ही रहता है चाहे कितनी ही वीरता से करें।
इस दृश्य में मंदोदरी रावण से कहती है कि सिर्फ एक ही दशा ऐसी है जिससे दोनों की
हार नहीं होगी और वह है ‘संधि’। इसके जवाब में रावण कहते हैं कभी-कभी लगता है
कि तुम रावण की पत्नी कहलाने योग्य नहीं हो। तुम्हारे अंदर वीरता की एक झलक
तक नहीं दिखती। तब मंदोदरी कहती है कि ‘वीरता’ शब्द ओढ़ लेने से आदर नहीं मिल
जाता है। यदि प्राणी धर्म के लिए लड़ता है तो वह दोनों ही दशा में वीर कहलाता है,
चाहे वह जीत जाये या मर जाये। परंतु जब अधर्म के लिए लड़ता है तब वह जीतने के
बावजूद भी अत्याचारी ही कहलाता है और यदि वह हार जाये तो लोग कहते हैं उसे
उसके कर्मों का दण्ड मिल गया। इससे हमें यह सीख मिलती है कि अत्याचार व वीरता
में भेद होता है। अत्याचार के परिणाम से उपयश मिलता है चाहे उसे कितनी ही वीरता
से क्यूं नहीं लड़ा गया हो।