क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग (परमात्मा)
इस अध्याय में कुल चार बातें समझने योग्य है। पहली बात है-क्षेत्र से क्या आशय है? क्षेत्रज्ञ से क्या आशय है? ज्ञान किसे कहते हैं? ज्ञान कैसे आता है? परमात्मा कौन है? ईश्वर को तो हम तब समझेंगे, जब स्वयं को समझ जाएं। यदि आपने कभी गीता को पढा हो तो उसका पहला वाक्य है ’’धर्मक्षेत्रे कुरूक्षेत्रे, समवेतायुयुत्सवः’’। कितना जिज्ञासापूर्ण वाक्य है। ये धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र हैं। हमारा शरीर ही धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र है। ये क्षेत्र क्या है? वह हमारा शरीर ही है। जब इसमें सद्गुण बढने लगते हैं, ज्ञान बढने लगता है तब यह धर्मक्षेत्र बन जाता है एवं इसके विपरीत जब इसमें अहंकार बढता है, क्रोध बढता है, ईर्ष्या बढती है तो यही क्षेत्र अर्थात् हमारा शरीर कुरूक्षेत्र बन जाता है। आइये इस अध्याय के माध्यम से हम अपने इन गुणों के बारे में जानें। कुछ लोगों का कहना है कि यह एक धार्मिक ग्रंथ है, परंतु आपको मैं ये बताना चाहूंगा कि ये धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक गं्रथ भी है। इसमें समस्त प्रकार के विज्ञानों का सूक्ष्म ज्ञान छिपा है। सर्वप्रथम इसमें पंचतत्वों की बात की है। ये पंच महाभूत हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। पंच महाभूत पंच तन्मात्राएं बनाते हैं। ये पंच तन्मात्राएं है- स्पर्श, ध्वनि, ग्रंथ, रस, रूप। इन तन्मात्राओं के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां है- कर्ण, नाक, जिहृा, नेत्र, त्वचा। इसके पश्चात् पंच कर्मेन्द्रिया आती है- हाथ, पैर, मुख, जननेन्द्रिय, गुदा। चार अन्तःकरण-मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार। ये 24 तत्वों से हमारा शरीर बना है, इसके अलावा 3 तत्व और हैं और इन 3 तत्वों को त्रिगुण कहते हैं। ये त्रिगुण हैं- सतगुण, रजोगुण एवं तमोगुण। ये 24 तत्व एवं त्रिगुण मिलकर 27 तत्व बनाते हैं।
27 के दोनों अंकों को यदि जोड दिया जाए तो 2+ 7 त्र 9 बनता है जो पूर्णांक होता है अर्थात् सम्पूर्ण अंक और इसके पश्चात् यदि पुनः कुछ आता है तो वह है ’एक’। एक जो परमतत्व परमेश्वर है जो सबके लिए एक ही है। जो सबमें व्याप्त है जो बादल जैसा है। जो एक है पर सब उसे अपने-अपने सम्प्रदाय के अनुसार देखते हैं।
आकाश की तन्मात्रा ध्वनि है जिसे हम कानों से सुनते हैं। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है जिसे हम त्वचा से महसूस करते हैं। अग्नि की तन्मात्रा रूप होती है जिसे हमें आँखों से महसूस करते हैं। जल की तन्मात्रा है रस जिसे हम अपनी जिहृा द्वारा महसूस करते हैं और पाँचवा तत्व है पृथ्वी जो सबसे भारी है जिसकी तन्मात्रा ’गंध’ है जिसे हम हमारी ’नाक’ द्वारा महसूस करते हैं। इस प्रकार ये पंचमहाभूत, पंच तन्मात्राओं को पंचज्ञानेन्द्रियों की सहायता से हमारे शरीर में प्रवेश कराते हैं फिर इन्हे हम अपनी पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा पुनः प्रकृति में लौटा देते हैं। ये सभी एक दूसरे से जुडी है। इसके बाद हमारे शरीर की सूक्ष्म सत्ता अन्तःकरण मे निहित है। ये हैं-मन जो भी विकल्प देता है उसे बुद्धि निर्मल करती है, बुद्धि को जिससे सूचना मिलती हे वह है चित्त और ये चित्त समस्त सूचनाएं अहंकार के द्वारा बुद्धि तक पहुंचाना है। अहंकार का अर्थ यहाँ घमण्ड से नहीं है। अहंकार का अर्थ है स्वयं को समझना ’’अहं’’ को जानना अहंभाव है ये सब मिलकर एक अद्भुत सत्ता का निर्माण करते हैं।
27 तत्वों को जानने के पश्चात् हम ’’क्षेत्र’’ को जान पाते हैं एवं इसमें जो वास करती है ’’एकस्व’’ अर्थात् परमतत्व ’क्षेत्रज्ञ’ जो हमारी आत्मा है जो हमें परमात्मा से मिलाती है और इन 27 व 28 तत्वों को जानना ही स्वयं को जानना है। यही तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि इन दोनों विभागों को पृथक-पृथक जान लेना ही तो ज्ञान है यही तो भगवद् गीता का सार है। इसके अलावा बाकी बची समस्त वस्तुएं अज्ञान है।
कुछ लोग कहते हैं सब कुछ हमारे प्रारब्ध से जुडा है जो कुछ भी हमारे साथ घटित होगा वह तो पहले से ही तय है। सब कुछ तय नहीं है। आपका जब जन्म हुआ था। उससे पूर्व भी आप जो कुछ करके आए हैं वह आपका प्रारब्ध है एवं आज के दिन तक आपने जो कुछ ’कर्म’ किया है। इन दोनों का जोड ही संचित कर्म है। संचित कर्म का केवल एक भाग ही प्रारब्ध है जिसे आप भाग्य समझ बैठे हैं। लेकिन जन्म के बाद आज तक आप बहुत कुछ कर चुके हैं। इन सब संचित कर्मों के कारण हमारे अंदर त्रिगुणों की उत्पति होती है लेकिन जब संचित कर्म अच्छे हो जाते हैं तब हम योग को समझ पाते हैं। ये योग भी तीन प्रकार के हैं। श्रीमद् भगवद् गीता में इसकी चर्चा मिलती है। सबसे पहलें आता है कर्मयोग फिर ज्ञानयोग और उसके बाद आता है भक्ति योग। ये योग ही हमें श्रेष्ठता की ओर ले जाते हैं। ये भी हमारे त्रिगुणों में परिवर्तन का कारण बनते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि योगी बनिए। योग और संचित कर्म मिलकर इंसान के गुणों को विस्तृत करते हैं और बहुमूल्य बना देते हैं, जीवन को अद्भुत बना देते हैं। अब एक और सवाल हमारे मन में आता है कर्म कैसा होना चाहिए? कर्म धर्ममय होना चाहिए। श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है कि धारयते इति धर्मः अर्थात् जिसे धारण किया जाए वही धर्म है और हमारा कर्म ही हमारा धर्म है। धर्म का मतलब हिन्दू, मुसलमान या ईसाई होना नहीं है यदि आप एक शिक्षक हैं तो आपने शिक्षक होने का कर्म अपना लिया है अब आपका अपने विद्यार्थी के प्रति धर्म उत्पन्न होता है। इसलिए गीता में पुरूषार्थ करने अर्थात् कर्म करने पर बल दिया गया है। कर्मवान बनना चाहिए, भाग्य के भरोसे नहीं बैठना चाहिए। हम सभी ईश्वरमयी हैं, आत्मरूप में हैं। हम सब एक सूक्ष्म सत्ता हैं और ये आत्मा ही परमात्मा है और यही इस पूरे अध्याय का सारांश है। आप सभी में ईश्वर देखें, सभी में समभाव देखें। इस प्रकार आपका जीवन परिवर्तनशील हो जाएगा, आप प्रसन्न हो जाएंगे। अगले अध्याय में ’’त्रिगुण विभाग योग’’ की बात करेंगे। आपके हृदय में बसने वाले ईश्वर को प्रणाम एवं धन्यवाद।
written by – Dr. Sanjay Biyani