अक्षर ब्रह्म योग (ऊँ जाप)
हमने पिछले अध्याय में ज्ञान और विज्ञान को समझा। सदियां बीत गई और कितना समय गुजर गया लेकिन इंसान निरंतर खोज करता जा रहा है, ये खोज संबंधित है खुद से और ब्रह्माण्ड से लेकिन मुझे लगता है कि सबसे बडी खोज जो ऊर्जा की खोज है, ब्रह्म की खोज है और इसका जिक्र मिलता है गीता में। श्रीकृष्ण द्वारा कहे गये शब्द आज के युग में बहुत ही प्रासंगिम और अगर किसी एक शब्द में पूरे ब्रह्माण्ड की व्याख्या की जाये तो सब कुछ ऊर्जा ही तो है। ऊर्जा ही तो पदार्थ बनती है और हम सब इसी में तो खो जाते हैं। गीता के आठवें अध्याय में हम अक्षर ब्रह्म योग को जानेंगे तो आइये चलिये इस यात्रा में जिसका नाम है श्रीमद् भगवद गीता संजय की नजर से……
इस अध्याय में हम तीन बातों की चर्चा करेंगे-
(ऊँ जाप)
हमने पिछले अध्याय में ज्ञान और विज्ञान को समझा। सदियां बीत गई और कितना समय गुजर गया लेकिन इंसान निरंतर खोज करता जा रहा है, ये खोज संबंधित है खुद से और ब्रह्माण्ड से लेकिन मुझे लगता है कि सबसे बडी खोज जो ऊर्जा की खोज है, ब्रह्म की खोज है और इसका जिक्र मिलता है गीता में। श्रीकृष्ण द्वारा कहे गये शब्द आज के युग में बहुत ही प्रासंगिम और अगर किसी एक शब्द में पूरे ब्रह्माण्ड की व्याख्या की जाये तो सब कुछ ऊर्जा ही तो है। ऊर्जा ही तो पदार्थ बनती है और हम सब इसी में तो खो जाते हैं। गीता के आठवें अध्याय में हम अक्षर ब्रह्म योग को जानेंगे तो आइये चलिये इस यात्रा में जिसका नाम है श्रीमद् भगवद गीता संजय की नजर से……
इस अध्याय में हम तीन बातों की चर्चा करेंगे-
- पहले वो शब्द जो पिछले अध्याय में कृष्ण द्वारा अर्जुन को बताये गये थे और वो हैं- ब्रह्म्र, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदेव और अधियज्ञ।
- मृत्यु के पश्चात् मोक्ष का साधन क्या है?
- पुनर्जन्म और मोक्ष का कारण क्या है?
आइये इन तीनों बातों को विस्तार से समझें। कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, नियत कर्म करने वाले व्यक्ति ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म कर्म, अधिभूत, अधिदेव और अधियज्ञ को जानते-जानते ईश्वर को जानने लगते हैं, ईश्वरमय हो जाता है।
कृष्ण सबसे पहलें ब्रह्म को समझाते हुए कहते हैं कि ब्रह्म से तात्पर्य ऊर्जा से है जो कभी नष्ट ही नहीं होती। दूसरा शब्द है अध्यात्म यानि स्वयं की खोज, मैं कौन हूँ ये भी जिज्ञासावश ही आता है। बहुत ही कम व्यक्ति हैं जो जीवन के उद्देश्यों के बारे में सोचते हैं और फिर आता है कर्म जिसका मतलब है जो बीत चुका है और जो आने वाला है उसे भूलकर वर्तमान समय में स्थिर होकर कर्म को धर्म समझकर करते जाओ। अधिभूत को बताते हुए कृष्ण कहते हैं ऐसी चीजें जो नाशवान हैं जो पदार्थ है और जिनको नष्ट होना है। इसके बाद अधिदेव की व्याख्या करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि पदार्थों के बीच मौजूद ऊर्जा जिसे प्राण कहा गया है वही अधिदेव है। कृष्ण कहते हैं कि ब्रह्माण्ड में जो भी क्रिया हो रही है वो मुझमें ही निहित है क्योंकि मैं ही तो ऊर्जा हूँ। लेकिन मैं किसी में आसक्त नहीं होता, यही अधियज्ञ भाव है।
इसके बाद कृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के समय मुझे कोई व्यक्ति जिस भाव से भजता है उसे उसी अनुरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है या मैं उसे पुनर्जन्म देता हूँ। तब अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं कि यदि ये सब इतना आसान है तो इंसान मृत्यु के समय ही आपका नाम ले लेंगे। जीवनभर आपका नाम भजने की क्या आवश्यकता है? मुझे लगता है कि अर्जुन द्वारा पूछा गया ये प्रश्न बहुत ही गंभीर है क्योंकि हम भी ऐसा ही प्रयास करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सुना है जो सारी उम्र पदार्थों के पीछे भागता रहा वो मृत्यु के समय आसानी से कृष्णा का नाम ले पाया होगा, ऊँ का उच्चारण कर पाया हो। यह संभव ही नहीं है क्योंकि जिसने जीवन भर जिसका स्मरण किया होगा मृत्यु के समय भी उसे वही याद रहेगा। इसका तात्पर्य है कि जीवनपर्यन्त एक यात्रा चलेगी जो तीन पडाव से गुजरेगी- निरंतर जप, चिंतन और युद्ध। कितनी गहरी बात है आइये इसको गहराई से समझते हैं। निरंतर जप से तात्पर्य है ऊँ के उच्चारण से है। पूरे ब्रह्माण्ड में ऊँ का नाद हो रहा है हमें उसे ही जपना है साथ ही अन्तःमन में कृष्ण का चिंतन हो, ईश्वर का ध्यान हो और इसके बाद युद्ध की बात कही गई।
मैं आपको बताना चाहता हूँ कि गीता कभी भी यु़द्ध करने को नहीं कहती, यहां युद्ध से तात्पर्य इंसान के भीतर चलने वाले द्वन्द्व से है और वो काम, क्रोध, मोह, लोभ के कारण है। हमें इनसे बाहर निकलना है, इन्हे हराना है और जब हम इन तीनों से ऊपर उठ जायेंगे तब ईश्वर और मोक्ष की यात्रा आरम्भ होगी। इसके बाद कृष्ण अर्जुन कोएक और महत्वपूर्ण बात समझा रहे हैं और वो बात है पुनर्जन्म और मोक्ष की। देवलोक भी जिसके लिए तरसते हैं, देवता भी जिसे प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि उन्हे भी अपने कर्मों को भोगना पडता है, इसके साथ पशु भी तो अपने कर्मों को भोग रहे हैं लेकिन पशु के पास ना बुद्धि है, ना विवेक है, ना अपने कर्मों का ज्ञान है और श्रीकृष्ण कहते हैं हे पार्थ! इसी जन्म से तुम मोक्ष या फिर पुनर्जन्म को प्राप्त कर सकते हो। श्रीकृष्ण एक और बात जो अर्जुन को बताते हैं कि इस अध्यात्म की यात्रा में ब्रह्मचर्य भी आवश्यक है। ब्रह्मचर्य से तात्पर्य अपने मन को संयमित करना है और उसे हृदय में विराजमान करना जिससे एक शांति की प्राप्ति होती है और मन कहीं भी भटकता नहीं है और तब आत्मा का परमात्मा में मिलन हो जाता है। लेकिन ये एक लम्बी प्रक्रिया है जिसमें पहले मन को नियंत्रित करना पडता है तब मन शांत से प्रशांत हो जायेगा जब कोई व्यक्ति ये सारी प्रक्रिया पूरी कर लेता है तो वह योगी बन जाता है इसे ही मोक्ष कहा गया है।
अंत में अर्जुन कृष्ण से एक अबोध बालक की तरह पूछते हैं कि यदि कोई व्यक्ति श्रद्धा से भरा हो, योग भी कर रहा हो, लेकिन इसके बावजूद उसका मन चंचल है जो स्थिर नहीं हो पा रहा तो ऐसे व्यक्ति का, क्या होता है? तब कृष्ण जवाब देते हुए कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को पुनर्जन्म प्राप्त होगा और वो उच्च योनी में पैदा होगा और उसका परिवार उसे योगी बनने में मदद करेगा। यही गीता है जो मुक्त कर देती है, प्रशांत बना देती है, कर्म योगी बना देती है, ईश्वर तक पहुंचा देती है। गीता के इन छह अध्यायों में ही इसका गूढ ज्ञान छिपा हुआ है बाकी के अध्यायों में उसे विस्तार से समझाया गया है। आइये हम फिर आगे बढते हैं। मैं आपका इस धर्ममयी यात्रा पर आमंत्रित करता हूँ जहंा हम गीता के ज्ञान को समझेंगे। सातवें अध्याय में हम ज्ञान विज्ञान योग को जानंेगे और इन दो शब्दों के बीच के अंतर को समझेंगे।
Written By- Dr. Sanjay Biyani