Vishvaroop-Darshan-Yog-Bhagavad-Gita-Hindi

विश्वरूप दर्शन योग


(कृष्ण दर्शन)


आज जिस अध्याय की हम चर्चा करेंगे यह तो वह अध्याय है जिसे इंसान पढते-पढते थकता ही नहीं है, परंतु यह तब संभव है जब उसके मन में भक्ति आ गई हो। जब हमने 10 अध्यायों को समझ लिया हो, तब ये ग्यारहवां अध्याय इतना रूचिकर लगने लगता है। इसे बार-बार सुनने की इच्छा होती है, आप इसे सुनते-सुनते ही नहीं। क्योंकि इसमें ईश्वर के दर्शन हैं इसलिए इसका नाम है ’’विश्वरूप दर्शन योग’’। यह अत्यन्त अद्भुत है।
इससे पूर्व ’विभूति योग’ था जिसमें ईश्वर अपनी शक्तियों का परिचय कराते हैं। जहां श्रवण हो रहा है, लेकिन क्या सुनने से ही सारा काम हो जाता है? क्या श्रुति ही सब कुछ है? मुझे लगता है श्रुति के बाद एक और चीज महत्वपूर्ण होती है और वह है हमारी दृष्टि। जब हम सुनकर, देखते हैं तो चीजें सुमिरन होने लगती है। हमें समझ में आने लगती है, महसूस होने लगती है। देखिए ना आज भी हमारे म्कनबंजपवद ैलेजमउ में हम ज्यादातर चीजें सुनते ही तो हैं, जबकि च्तंबजपबंस ज्ञदवूसमकहम ज्यादा जरूरी है। जब तक हम चीजों को यथार्थ रूप मंे नहीं समझ लेते हैं। चीजें हमें नहीं समझ आती । इस अध्याय में ईश्वर अपने यथार्थ स्वरूप का दर्शन करा रहे हैं। आँखों द्वारा देखा जा रहा है ताकि हमारे अतंःकरण से भक्ति की पराकाष्ठा बाहर निकले, हमें और अधिक सुमिरन होने लगे, हमारे अतंःमन से स्वतः ही एक शब्द फूट पडे जिसका नाम है……….नारायण!नारायण!
वास्तव में इस अध्याय को पढने के बाद स्वतः ही मन से ’’नारायण ओम’’ की आवाज आने लगेगी।
मुझसे कई लोगों ने पूछा कि ऐसा शब्द बताइये जो च्वेपजपअपजल ब्तमंजम कर दे, जो ऊर्जा उत्पन्न कर दे, जिससे सकारात्मकता सोचना आ जाए। मैं आपको हृदय से एक बात कहना चाहँूगा कि वे बहुत सुने, देखे पर सुमिरन जरूर करें, सुमिरन करने से आपके मन से ईर्ष्या, द्वेष, राग ये सभी दूर होने लगते हैं। आज यदि मैं आपसे प्रश्न करने को कहूं, तो आप सबके मन में एक प्रश्न जरूर होगा और वो है कि दुःख का कारण क्या है?
तो मैं कहंूगा कि दुःख का कारण अज्ञान है। जैसे-जैसे ज्ञान आ जाएगा। दुःख स्वतः ही दूर होने लगेगा। अगर आप अपने ज्ञान के स्तर को बढाएंगे तो दुःख दूर होने लगेंगे और अर्जुन यही बात श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि हे कृष्ण! हे माधव! आप जैसे-जैसे मुझे ज्ञान प्रदान कर रहे हैं मेरा दुःख-विषाद दूर होता जा रहा है, और मुझे अच्छा अनुभव हो रहा है। अर्जुन कहते हैं कि हे परमेश्वर! हे योगेश्वर! हे पुरूषोत्तम! मुझे आपके ज्ञान, तेज और शक्तिमय रूप का परिचय कराइये मैं उसका दर्शन करना चाहता हूँ।

श्रीकृष्ण कहते हैं, हे भरतवंशी अर्जुन! तू अदिति के द्वादश पुत्रों एवं एकादश रूद्रों में और अश्विनी कुमार के रूप में तू मेरे इस अद्भुत रूप को देख, और इसी तरह के आश्चर्यजनक संपूर्ण विश्वस्वरूप को देख, परंतु इन नेत्रों से तुम मुझे नहीं देख पाओगे। इसलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान किए जिससे अर्जुन इस ऊर्जा स्वरूप, दिव्य रूप को देख सके। इसी समय एक दूसरा दृश्य भी बन रहा है, संजय एवं धृतराष्ट्र के मध्य वार्तालाप का। ये दोनों भी आपस में बात कर रहे हैं। संजय भी अपनी दिव्य दृष्टि के साथ यह सारा वृतान्त धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं। संजय बोले हे राजन! योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इसी के साथ सभी केा विस्मय कर देने वाले अपने पम स्वरूप का दर्शन कराया और यह समस्त पापों को नष्ट करने वाला ऊर्जामय शरीर था। ये रूप उन्होंने अर्जुन को इसलिए दिखाया कि सब कुछ केवल ’सुन्दर’ ही नहीं है बल्कि कुछ ’भयावह’ भी है। अगर हमें पूर्ण प्रौढता प्राप्त करनी है, परिपक्वता प्राप्त करनी है तो हमें अच्छे के साथ बुरे अहसास भी करने होते हैं क्योंकि विश्व में प्रिय के साथ अप्रिय का वास भी है। लेकिन जब तक इसको समान रूप से नहं देखा जाता तब तक परिपक्वता नहीं आती। इसलिए मेरे अनेक सिर, अनेक भुजाएँ, सहस्रों नेत्र वाले रूप को देख। इस स्वरूप को देखकर अर्जुन चकित हुए जा रहा है। वह अनेंकों ब्रह्माण्ड इनके मुख में प्रवेश होते हुए देख रहा था इससे उसके आश्चर्य की सीमा बढने लगती है। इस स्वरूप का ना तो कोई आदि है, ना मध्य है, ना ही कोई अंत। इस स्वरूप में ब्रह्मा, विष्णु व महेश समाए हुए हैं। कितना विस्मय कर देने वाला रूप है। अर्जुन यह भी देख रहा है कि धृतराष्ट्र के समस्त पुत्र, सभी राज्यों से आए हुए राजा, धृतराष्ट्र, भीष्म पितामह और कर्ण, ये सब ईश्वर के विश्वमय रूप के मुख में प्रवेश करते जा रहे हैं। उनकी दाढ में समाए जा रहे हैं, अब अर्जुन को ’भय’ लग रहा है और वह हाथ जोडकर श्रीकृष्ण से क्षमायाचना करने लगा, हे परमेश्वर! हे योगेश्वर! आपको मैं यादव कहता रहा। सखा कहता रहा, परंतु आप तो स्वयं ईश्वर हैं। अर्जुन को यह लगने लगता है कि जिस प्रकार नदियां समुद्र में मिल जाती है उसी प्रकार इस संसार में जितने भी प्राणी हैं वे सभी अंत में श्रीकृष्ण के मुख में समाते जा रहे हैं। भय और अधिक होने लगता है और अर्जुन बार-बार नतमस्तक होने लगता है। कहते हैं ना कि ’’भय बिनु होय न प्रीत’’। आपके हृदय में भी यदि भय आ रहा है तो आप नतमस्तक होने वाले हैं।
श्रीकृष्ण बोले हे अर्जुन! मैं ही काल हूँ और ये सब मुझमें ही समा रहे हैं। मुझे लगता है कि वास्तव में ईश्वर बहुत बडी सत्ता है और ईश्वर में सब समाए हुए हैं। अर्जुन इसी रूप से भयभीत भी है, नतमस्तक भी है और वह पुनः आराधना करने लगता है। श्रीकृष्ण बोले कि ये द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कर्ण, दुर्योधन व समस्त सेना इन्हे तो मैं पहलें ही मार चुका हूँ। तू तो बस निमित्त बन। देखिए श्रीकृष्ण ने इससे पूर्व कहा था कि मैं ना तो कर्त्ता हूँ, ना भर्त्ता हूँ और यहाँ कह रहे हैं कि मैं ही समस्त कर्म करता हँू यह अत्यधिक विस्मय एवं संशय करने वाली बात है कि कौनसी बात सही है। देखिए अध्याय 5 में अर्जुन विद्यार्थी हैं, वह ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में है-परंतु अब स्थिति बदल गई है। अब वह ’’भक्ति मार्ग’’ पर हैं और जब इन पंचमहाभूतों से हमें ऊर्जा प्राप्त होती है तो हम कर्मयोगी होते हैं। कर्म को ही समझते हैं, उस दशा में मनुष्य ही कर्त्ता है व मनुष्य ही भर्त्ता है। लेकिन अभी तो उसे कर्मयोग समझ में आया है। परंतु अब वह ईश्वर तत्व को समझने लगा है, ईश्वर स्वरूप के दर्शन प्राप्त कर चुका है, उस अवस्था में मनुष्य केवल स्वयं को ही निमित्त मानता है। बहुत गहरी बात है। यह अत्यंत अद्भुत एवं सतत् चलने वाली यात्रा है। एक अध्याय का दूसरे अध्याय से संबंध है। हम सीधे अध्याय ग्यारह नहीं पढ सकते, क्यांेकि इसके लिए पहलें पूर्व ज्ञान को पहचानना होगा, महसूस करना होगा व आत्मसात करना होगा।
सभी संत, सभी महात्मा श्रीकृष्ण को लेकर अलग-अलग बातें कहते हैं परन्तु मेरा मानना है कि हमें वास्तव कें श्रीकृष्ण को समझना है तो हमें उन्ही को समझना एवं हमें उन्ही को सुनना होगा। सब इनकी व्याख्या करते हैं, कुछ संत कहते हैं ’’ú’’ का उच्चारण कीजिए। आइए हम इस ’’ú’’का उच्चारण करें एवं श्रीकृष्ण को समझें।
अर्जुन भयभीत भी हैं, नतमस्तक भी हैं वह पुनः हाथ जोडकर प्रार्थना करता है कि हे योगेश्वर मुझे अपने चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कराइये जिसमंे गदा है, शंख है, चक्र है व पù है। श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कराते हैं। यह चित्त को शांति प्रदान करने वाला है। व्यक्ति को ’स्थिरप्रज्ञ’ बनाने वाला है। अब अर्जुन ’स्थिरप्रज्ञ’ हो गया है, शांत हो गया है, प्रसन्न हो गया है।
श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन! मेरा ये चतुर्भुज रूप ना ही मंत्रों से, ना ही दान देने से, ना ही तप से देखा जा सकता है। इस चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन अत्यंत दुर्लभ है और अंत में जो श्रीकृष्ण ने कहा यही तो इस अध्याय का सारांश है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो सम्पूर्ण कर्त्तव्यों को समझकर धर्ममय हो जाता है उनका ध्यान अर्थ में नही होता बल्कि मुझमें ही मन लगाए होते हैं ओर वे लोग मुझमें आसक्त हो जाते हैं। पदार्थ में उनकी आसक्ति नहीं होती। वे मुझमें ही समाने लगते हैं और ऐसा करते-करते वे किसी से वैर भावना नहीं रखते। किसी से भी द्वेष नहीं करते और ऐसा करने से उन्हे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं, मुझमें ही विलीन हो जाते हैं। यह अध्याय सुनने, समझने एवं देखने में अत्यन्त अद्भुत है, यह दर्शन कराने वाला है, ईश्वर को आत्मसात कराने वाला है। जब ईश्वर समझ में आ जाते हैं तो भक्ति आने लगती है। हम पुनः चर्चा करेंगे अगले अध्याय में जिसका नाम है भक्तियोग।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes:

<a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>