राजविद्या राजगुह्मयोग

(सकारात्मकता, विद्या व अविद्या)

पिछले अध्याय में हमने यह जाना कि हमें सदैव ईश्वर का मन में चिंतन करना चाहिए तथा साथ ही कर्म लगातार किये जाए तो इंसान मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है एवं पुनर्जन्म। ये पुर्नजन्म की धारणा विज्ञान भी स्वीकार करता है। इस अध्याय में हम यह जानेंगे कि मोक्ष को किस प्रकार प्राप्त किया जाए।

यदि कोई पूछे कि सबसे बडे व ताकतवर शब्दों की सूची बनाए तो मैं सर्वप्रथम नाम लूँगा। ’’श्रद्धा’’ और गीता में इस बात की चर्चा की गई है कि –

।।श्रद्धावान लभन्ते ज्ञानम्।।

आइये चर्चा करें कि यह किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं, श्रद्धा से श्रीकृष्ण किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं? इस श्रद्धा से मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार होती है? इस अध्याय में हम इस विषय पर विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम जानेंगे कि श्रद्धा कि पात्रता क्या है? श्रद्धा और विद्या का क्या संबंध है? और जानेंगे कि भजन, कीर्तन और मोक्ष में क्या अन्तर है?

आइये मैं आपको पुनः ले चलता हूँ उस कुरूक्षेत्र में जहाँ भीषण युद्ध का दृश्य बन रहा है। अर्जुन रथ की पीछे निराश बैठे हैं और श्रीकृष्ण अर्जुन को लगातार ज्ञान दिए जा रहे हैं लेकिन ये सब चर्चा एक जगह और चल रही है जहाँ संजय, धृतराष्ट्र को समझा रहे हैं। ये धृतराष्ट्र कौन है? जिसमें ईर्ष्या है, जिसमें द्वेष है, जिसमें मोह है, कहीं ये सब हम तो नहीं हैं? ये दोनों परिप्रेक्ष्य में ऐसा लगता है के मानव मात्र के लिए संदेश दिया जा रहा है। हमारे मन में भी ईर्ष्या है, हमारे अंतर्मन में भी द्वेष है। हम भी तो दुर्याधन हैं। आज हम 2018 में हैं अर्थात् 5000 वर्ष पूर्व ये ज्ञान चर्चा में रहा। एकमात्र ज्ञान और वो था श्री हरि कृष्ण द्वारा दिया गया ’’श्रीमद् भगवद् गीता’’ और कोई ज्ञान था ही नहीं। बाकि सभी बाईबिल, कुरान आदि बाद में बनें। इन सभी ग्रंथों में श्रद्धा की बात ही कही गई है। जबकि इस श्रद्धा के बारे में सर्वप्रथम गीता में ही बता दिया गया था कि जिसमें श्रद्धा है वही ज्ञान को प्राप्त करेगा। इस अध्याय का नाम ही राजविद्यायोग है क्योंकि बुद्धि ही तो राजा है। बुद्धि ही तो सबको चलाती है इसे राजगुह्ययोग बहुत ही अद्भुत है।

इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि वे ज्ञान इसलिए प्रदान कर रहे हैं कि चूंकि उसमें एक बहुत ही अद्भुत गुण है और वह गुण है कि वह किसी से द्वेष नहीं करता। वह किसी मंे दोष नहीं देखता। जो द्वेष नहीं करेगा एवं जो किसी में दोष नहीं देखेगा वह व्यक्ति श्रद्धावान हो जाएगा। वह सकारात्मक हो जाएगा।

यदि हम ये चर्चा करें कि हममें से कितने ऐसे लोग हैं जो किसी से द्वेष नहीं करते। किसी में दोष नहीं देखते। जो किसी की आलोचना नहीं करते। हम सभी किसी ना किसी रूप में ऐसा कर रहे हैं और इसीलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह अध्याय तो समझ में तब ही आएगा जब हम दोष एवं द्वेष दोनों से ही परे निकल जाएंगे। यह श्रद्धावान होने की पात्रता है।

अब हम बात करेंगे कि विद्या और श्रद्धा का क्या संबंध है देखने में तो दोनों ही एक से प्रतीत होते हैं। परन्तु विद्या अलग है एवं श्रद्धा अलग है और इस योग में इसे समझना बहुत ही आवश्यक है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि हे अर्जुन! तुम इंद्रियों द्वारा मुझे नहीं समझ सकते? तुम इंद्रियों द्वारा केवल प्रकृति को समझ सकते हो लेकिन हे अर्जुन! यदि तुम मुझे समझना चाहते हो तो तुम्हें विद्या प्राप्त करनी होगी और विद्या के लिए तुम्हारे अंदर श्रद्धा होना जरूरी है। विद्या एवं श्रद्धा दोनों ही दो प्रकार की होती है।

श्रद्धा व अश्रद्धा के परिणाम

श्रद्धा
वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ
अश्रद्धा
वे मुझमे नहीं हैं और मैं उनमें नही
विद्या
आत्मा व मोक्ष को समझना
अविद्या
पदार्थ एवं प्रकृति को समझना
आस्तिक
दैवीय वृत्ति वाले व्यक्ति
नास्तिक
आसुरी वृत्ति वाले व्यक्ति

गीता में ही कहा गया है कि ’’सा विद्या या विमुक्तये।।’’ अर्थात् मुझे तो विद्यावान होना होगा और विद्यावान होने के लिए श्रद्धावान होना होगा। आज भी अधिकांश लोग पदार्थ एवं प्रकृति को ही देख रहे हैं अर्थात् अध्ययन कर रहे हैं। विज्ञान की बात करें तो आज भी पदार्थ की खोज ही हो रही है लेकिन एक साईंस की ब्रांच क्वांटम फिजिक्स की बात करने लगी है और ये कहने लगी है कि पदार्थ से अधिक महत्वपूर्ण ऊर्जा है। क्योंकि पदार्थ के मध्य जो आत्मतत्व ऊर्जा के रूप में विद्यमान है उसे ही तो ऊर्जा कहते हैं। ईश्वर कहते हैं वो ही तो क्वांटम है। वही तो अदृश्य है। जो दिखाई नहीं देता। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं सबका पालन करता हूँ। मैं सबकी उत्पत्ति एवं संहार का कारण भी हूँ। सब मुझमें है और मैं सबमें हूँ और फिर दूसरी तरफ ये भी कहते हैं कि मैं सबमें नहीं और सब मुझमें नहीं। ये किस प्रकार संभव है ये तभी संभव है जिसमें श्रद्धा है उसमें हरि का वास है। जिसमें श्रद्धा नहीं वहां हरि का वास नहीं क्योंकि वह विद्यावान नही ंतो ईश्वर उनमें होते हुए भी नहीं होता है।

इस अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस जगत में भिन्न-भिन्न लोग हैं और जो मुझे जिस भाव में भजता है मैं उसी रूप में प्राप्त होता हूं। देवताओं में श्रद्धा रखने वाले देवलोक में जाते हैं। मुझे श्रद्धा रखने वाले मुझे पा जाते हैं एवं पितरों में श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति पितृलोक में जाते हैं। मुझे प्राप्त करने वाले व्यक्ति मोक्ष पा जाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कोई दूराचारी व्यक्ति भी मेरा भजन-कीर्तन व मनन करने लगे तो धीरे-धीरे उसके समस्त पापकर्म नष्ट हो जाते हैं। कितनी अच्छी बात है ना हम सब यदि चाहें तो आज भी श्रीकृष्ण का भजन-कीर्तन एंव मनन करके उन्हे प्राप्त कर सकते हैं। इनसे ही हमारा तनाव दूर होगा। यही तो सकारात्मकता है। ये ध्यान है। इसे हम जहां लगाएंगे वही लग जाएगा। आप देवता भी बन सकते हैं एवं आसुरीवृत्ति भी रख सकते हैं।

तो आइये, श्रीकृष्ण को भजें। उन्ही को सोचें। उनका चिंतन करें तो निश्चित रूप से हम सकारात्मक होंगे और एक खास बात है ’’आसक्ति’’ एक है ’’अनासक्ति’’। हमें कर्मफलों के प्रति अनासक्ति का भाव रखना होगा अगर कर्मफल मंे अनासक्त नहीं हुए तो ईश्वर समझ नहीं आएगा। अनासक्ति किस में हो कर्मफल में एवं आसक्ति ईश्वर में हो। अगर हम अनासक्त भाव से कर्मफल त्यागेंगे तो ईश्वर में आसक्ति उत्पन्न होगी। श्रीकृष्ण यही संदेश दे रहे हैं। तुम अनासक्त भाव से मुझमें आसक्ति रखो तब मैं और तुम एक ही हो जाएंगे और यही मोक्ष की अवस्था है। यही तो इस अध्याय का सार है भजन।

अब हम अगले अध्याय में चर्चा करेंगे जिसका नाम है विभूतियोग।

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