श्रीमद्भगवद्गीता
(संजय की नजर से)
चौथा अध्यायः ज्ञानकर्मसन्यास योग
सांख्य योग में ज्ञान की बात हुई तो कर्म योग में शरीर की बात हुई, शरीर से कर्म कैसे किया जाए और बुद्धि से ज्ञान मार्ग पर कैसे चला जाए इसे जाना, लेकिन अब ईश्वर को जानना जरुरी है। क्योंकि अर्जुन का सवाल था कि मैं ईश्वर को क्यों मानू। इस अध्याय में ईश्वर का परिचय, ईश्वर के आने का कारण, स्वभाव, सहित आठ बातों पर चर्चा की गई है। आइए एक बार फिर इस यात्रा पर चले और जाने चौथे अध्याय- ज्ञानकर्मसन्यास योग को।
अर्जुन अभी भी संशय में है क्योंकि वो युद्ध नहीं करना चाहता क्योंकि उसे ईश्वर का परिचय नहीं है। ये समस्या सिर्फ अर्जुन की नहीं है बल्कि हम सब लोगों की भी है। वे लोग जो व्यवसाय करना चाहते है, जो जिन्दगी में कुछ बड़ा करना चाहते है उन सबके सामने ये समस्या आती है कि वे किसी काम को क्यों और कैसे करंे। जबकि ये कितनी अच्छी बात है कि जब तक हमारें सामने समस्या नहीं आती तबतक अनुभव नहीं होता और तब तक ज्ञान नहीं बढ़ता। आइए अपने ज्ञान को और अधिक बढ़ाए।
इस अध्याय में जिस बात पर चर्चा की गई है उसमें पहला बिन्दु है ईश्वर का परिचय- श्रीकृष्ण कहते है देखो अर्जुन सबसे पहले यह ज्ञान मैनें सूर्य को दिया, सुर्य ने मनु को, मनु ने ईक्ष्वाकु को। लेकिन समय के साथ यह ज्ञान भुला दिया गया। अब एक बार फिर मैं यह ज्ञान तुमको दे रहा हूं इसे गुप्त रखना। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा ऐसा क्यों तब श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि ज्ञान किसी समझदार व्यक्ति को दिया जाएगा तो वह उसे समाज के निर्माण में लगाएगा और यदि ज्ञान किसी अज्ञानी को दिया जाए तो वह विनाश कर सकता है। इस प्रकार जब श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना परिचय दे रहे है तो अर्जुन एक बार फिर संशय में पड़ जाते है कि आप तो मेरे भ्राता और मित्र की तरह है, फिर मैं ये कैसे मान लू कि आप ईश्वर है। इसके जवाब में श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते है कि अर्जुन तुम्हे लगता है कि ये तुम्हारा पहला जन्म है जबकि इससे पहले तुम्हारे कई जन्म हो चुके है लेकिन तुम्हे अपने जन्मों का बोध नहीं है, परंतु मुझे है। मुझे लगता है कि हिन्दू धर्म में जो आत्मा की बात की गई है वह बहुत ही तार्किक है क्योंकि यदि कर्म और फल में कोई संबंध नहीं होता तो यह चक्र कैसे चलता।
गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि हम आत्मा है और बहुत सदियों से चले आ रहे है, लेकिन अर्जुन अभी भी परेशान है और तब वह दूसरा प्रश्न पूछता है कि आपके आने का कारण क्या है? तब भगवान श्रीकृष्ण उसे जवाब देते है कि जब-जब धर्म की हानि होती है, जब-जब समाज में अराजकता बढ़ती है तब-तब मैं जन्म लेता हूं। अर्जुन फिर ईश्वर के स्वभाव के बारे में पूछते है तब भगवान जवाब देते है कि ईश्वर का स्वभाव एक बच्चे जैसा है जिसे अपने कर्म के फल से आसक्ति नहीं होती है। कर्म और सन्यास की चर्चा करते हुए श्रीकृष्ण कहते है कि कर्म श्रेष्ठ तब बनता है जब वह फल की इच्छा किए बिना किया जाए। पंडित के बारें में चर्चा करते हुए श्रीकृष्ण कहते है कि पंडित वो है जो ज्ञान की खोज कर रहे है जिससे समाज को सही ज्ञान दिया जा सके। श्रद्धा के बारें में बताते हुए श्रीकृष्ण कहते है कि जो भी कर्म श्रद्धा के साथ किया जाता है वह सफल होता है। आखिर में श्रीकृष्ण यज्ञ की बात करते हुए कहते है आप अपने अर्जित धन में से दान जरुर करे। इस अध्याय में यज्ञ को चार भागों में बांटा गया है-
1. द्रव्य यज्ञ- अर्जित धन को दान देना।
2. तप यज्ञ- व्यक्ति मेहनत करके जो दान करता है।
3. योग यज्ञ- ध्यान लगाना और अंतःरस को प्राप्त करना।
4. ज्ञान यज्ञ- ज्ञान की अग्नि से कर्म बंधन को भस्म करना।
इस अध्याय में ज्ञान के दान को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। मैं आपको उदाहरण से समझाता हूं। शिक्षक को अपने शिष्यों को ऐसा ज्ञान देना चाहिए जिससे वे श्रेष्ठ बने और समाज की प्रगति में अपना योगदान दे सके। हम फिर मिलेंगे और अगले अध्याय में कर्म सन्यास योग की चर्चा की जाएगी।
YouTube Video Link:- श्रीमद भगवद् गीता | अध्याय 4 | Bhagwad Geeta Sanjay ki nazar se
Priya Sharma says:
motivational and impressive thoughts